Frequently Asked Questions

ईश्वरीय नॉलेज

यहाँ पर गीता-ज्ञान और सहज राजयोग की शिक्षा दी जाती है। इस आध्यात्मिक विश्वविद्यालय में, ‘अध्यात्म’ शब्द का अर्थ ही है- अधि + आत्म। अधि माना अन्दर और आत्म माना आत्मा के। तो यहाँ पर आत्मा के विषय में, आत्मा के अन्दर की पढ़ाई पढ़ायी जाती है। परमपिता परमात्मा शिव-शंकर भोलेनाथ के द्वारा प्राप्त इस ज्ञान को चार सब्जेक्ट्स में बाँटा गया है। और किसी भी उम्र के, जाति के, धर्म के स्त्री या पुरुष यहाँ आ करके निःशुल्क ज्ञान लेने का लाभ उठा सकते हैं।
गीता-ज्ञान और सहज राजयोग के माध्यम से कोई भी मनुष्य, अपने कर्मों की गुह्य गति को जानकर, अपने जीवन के अंतिम लक्ष्य को यानी नर से ‘नारायण’ और नारी से ‘लक्ष्मी’ बनने के पद को इसी जीवन में, इसी शरीर से जीते जी प्राप्त कर सकता है। साथ ही साथ सदाकाल की सुख-शांति भोगने का अधिकारी भी बन सकता है। और राजयोग की शिक्षा के आधार से कोई भी आत्मा अपने अन्दर रूलिंग पावर और कंट्रोलिंग पावर के संस्कार भर करके अनेक जन्मों के लिए राजाई पद यहीं निश्चित कर सकती है।
अभी तक ज्ञान, योग, धारणा और सेवा- इन चारों ही सब्जेक्ट्स में हाईएस्ट नंबर प्राप्त कर अपने जीवन के अंतिम लक्ष्य को पहुँची सिर्फ दो आत्माएँ हैं। पहली आत्मा है- विश्व-महाराजन ‘श्री नारायण’ और दूसरी आत्मा है विश्व महारानी ‘श्री लक्ष्मी’। सन् 2018 से ले करके 2028 तक फाइनल परीक्षा होने वाली है। आठ आत्माएँ हैं जो ‘अष्ट देवों’ का पद प्राप्त करने वाली हैं। ये आठ आत्माएँ पास विद ऑनर और ‘महाराजा’ बनने वाली आत्माएँ हैं।इनके बाद पद प्राप्त करने वालों की संख्या 100 है। ये आत्माएँ सन् 2027-28 तक अपने जीवन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगी। ये 100 आत्माएँ जन्म-जन्मांतर राजा बनने वाली आत्माएँ हैं। अब इनके बाद पद प्राप्त करने वालों की संख्या 16,000 है। ये 16,108 आत्माएँ जन्म-जन्मांतर राजघरानों में नं. वार पुरुषार्थ अनुसार जन्म लेती रहेंगी। और इनके बाद प्रजा पद प्राप्त करने वालों की संख्या 4.5 लाख है। जोकि जन्म-जन्मांतर अन्य पद-अधिकारी से ले करके प्रथम श्रेणी, द्वितीय श्रेणी, अन्य दास-दासी व अंतिम चांडाल तक के पद को प्राप्त करने वाले होंगे। ये सभी शिव की मालाएँ हैं जो हर धर्म में सिमरी जाती हैं।
शिवबाबा ने मा॰ आबू में ब्रह्मा मुख से पहले ही सुनाया था कि लौकिक पढ़ाई डॉगली पढ़ाई है। मुरली (ता. 8.11.70 पृ.3 मध्य) में महावाक्य भी आया है- “उन्हों की है डॉगली सर्विस ओनली; और तुम्हारी है गॉडली सर्विस ओनली। वो तो डॉग एण्ड बीचेज बनाते हैं। तुम गॉड-गॉडेस बनाते हो।” समाज के विरोध का सामना करने के भय से ब्रह्माकुमार-कुमारियाँ इस सत्य बात को उठाती नहीं हैं और हमारे बाबा तो शिवबाबा की मुरली ही सुनाते हैं, अपना कोई बात नहीं सुनाते हैं। शिवबाबा लौकिक पढ़ाई का विरोध नहीं करते हैं; लेकिन वर्तमान समय जो शिक्षा प्रणाली है, वो पाश्चात्य शिक्षा पद्धति होने के कारण सहशिक्षा को बढ़ावा देती है, जिससे किताबी ज्ञान के साथ-ही-साथ चरित्र के पतन को भी बढ़ावा मिल रहा है। स्टूडेंट्स को आध्यात्मिक ज्ञान तो मिलता ही नहीं है। आत्मा और परमात्मा की असली पहचान न होने के कारण, पूर्व जन्मों के संस्कारों के अनुसार जो बॉडी-कांशसनेस के वायब्रेशंस हैं अर्थात् जो डॉगली वायुमंडल है, वो उसको बनाने के निमित्त बन जाते हैं। कई बार तो टीचर्स भी उन वायब्रेशंस को कंट्रोल नहीं कर पाते हैं। हमारे यहाँ भी वही शिक्षा बेसिक रूप से पढ़ाई जाती है; लेकिन पवित्र वायुमंडल में और आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-ही-साथ। डॉग कामी और व्यभिचारी होता है, वफादार भी होता है। वो तो पूँछ हिला-2 कर अपने मालिक के हर डायरैक्शन को फॉलो करता है; और मालिक? मालिक तो उसको चेन से बाँधकर आधीन बनाकर रखता है। ऐसे ही वर्तमान समय, पश्चिमी देशों की जो शिक्षा है वो नौकर बनना, आधीन बनना सिखाती है अर्थात् परावलम्बी बनना सिखाती है; इसलिए स्टूडेंट्स जो डिग्री हासिल करके निकलते हैं, वो भी किसी के अंडर में रह करके नौकरी करना ज़्यादा पसन्द करते हैं, जबकि जो ईश्वरीय राजयोग की पढ़ाई है, वो तो अनेक जन्मों के लिए राजा बनना सिखाती है। ‘ईश्वर’ का तो अर्थ ही है- ईश + वर। ईश यानी शासक और वर यानी श्रेष्ठ। ईश्वर तो खुद ही स्वतंत्रता के सम्राट, विश्वनाथ शिव-शंकर भोलेनाथ हैं, तो अपने बच्चों को भी तो आप समान बनाएगा ना! और वैसे भी हमारे देश में तो कहा ही जाता है- ‘उत्तम खेती मध्यम बान निकद चाकरी भीख निदान’।
यहाँ पर आने वाले 80 प्रतिशत जिज्ञासु ब्रह्माकुमारी विद्यालय से ही हैं और ब्र.कु. सेर्ण्ट्स तो ज़्यादातर शहरों में खुले हुए हैं; इसलिए बाहर से आने वालों की संख्या ज़्यादा है। ये कहावत भी तो है ना- ‘‘घर की गंगा का मान नहीं’’, मतलब गंगा के किनारे रहने वाले गंगा-स्नान को उतना महत्व नहीं देते जितना बाहर से आने वाले देते हैं। यहाँ पर मुख्य बात है ब्रह्मचर्य की। पवित्रता को धारण करना ये सबके बस की बात नहीं है; लेकिन जो हिम्मत करते हैं उनको भगवान से मदद अवश्य मिलती है।
संसार को चलाने की ज़िम्मेवारी किसी मनुष्य के कंधे पर नहीं है। और वैसे भी, ये आध्यात्मिक ज्ञान लेने के लिए क्या दुनिया के सभी मनुष्य एक साथ आ रहे हैं? लाख कोशिश करने के बावजूद भी जनसंख्या बढ़ रही है कि घट रही है? बढ़ती ही जा रही है। अभी तक कितने पुरुषों ने संन्यास लिया अपना घर-बार छोड़ करके; लेकिन उन पर तो कभी किसी ने कोई प्रश्न नहीं उठाया! लेकिन जहाँ आज नारी और पुरुष को समान का दर्जा दिया जाता है, वहाँ पर हम नारियाँ पवित्रता को धारण करना चाहती हैं तो हम पर प्रश्न पूछा जाता है। क्या पवित्र रहना हमारा राइट नहीं है? आज जो भी बच्चे जन्म ले रहे हैं, उनका आदि, मध्य और अंत तीनों ही दुखदायी है। अभी इस भ्रष्टाचार की पैदाइश को बंद करना है। सतयुग में वहाँ होती है श्रेष्ठाचारी पैदाइश, वहाँ पर कोई प्रकार का भ्रष्ट इन्द्रियों का आचरण नहीं होता।
किसी प्रकार के मेले-सम्मेलन या मजमे आदि करने से किसी व्यक्ति का उत्थान नहीं होता। ईश्वरीय ज्ञान को व्यक्तिगत रूप से समझाना ज़रूरी है; क्योंकि इससे क्वालिटी आत्माएँ निकलती हैं। भगवान राजयोग सिखाकर राजा बनाने आते हैं, प्रजा नहीं; क्योंकि प्रजा में ताकत नहीं होती। आपने देखा ही है- कौरव 100 होते हुए भी हार गए; लेकिन पाण्डव 5 होते हुए भी जीत गए। यहाँ पर क्वॉण्टिटी को नहीं; लेकिन क्वालिटी को बढ़ावा दिया जाता है।
पुराने ज़माने में एक कहावत थी- नेकी कर दरिया में डाल। पर आज मॉडर्न दुनिया में ये कहावत भी थोड़ी मॉडिफाई हो गई है- नेकी कर सोशल मीडिया में डाल। हम भारतवासी उनकी ये सभ्यता है ही नहीं प्रदर्शन और प्रचार करना। ये तो विदेशियों की परम्परा है। हमारा तो मानना ही था- गुप्त दान महान कल्याण। भगवान ने गीता में कहा है- “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” (गीता 2/47) तुम जो भी कर्म करते हो उसके फल की इच्छा नहीं रखनी है। क्योंकि फल की इच्छा रखकर, मान-मर्तबे की इच्छा से किया गया कोई भी दान-पुण्य रजोप्रधान फल देता है। समाज के एक अंग होने के कारण, यहाँ पर आने वाले सभी जिज्ञासुओं को इस बात पर ध्यान दिलाया जाता है कि स्व-कल्याण से ही विश्व का कल्याण होता है। शिवबाबा का कहना है- “जब तक बीज का सुधार नहीं हुआ है तब तक वृक्ष का सुधार नहीं हो सकता।” ये आत्मा भी एक चैतन्य बीज है और ये शरीर इस चैतन्य बीज का वृक्ष है। आत्मा में ही तो अनेक जन्मों के अच्छे और बुरे कर्म के संस्कार भरे रहते हैं। आज इस समाज में फैली हुई बुराइयों का कारण ये मनुष्य गुरु ही बने हैं; और इसको निवारण करने के निमित्त एकमात्र मुकर्रर रथ में आए हुए शिव-शंकर भोलेनाथ के द्वारा ही होना है।
पहला फायदा, ईश्वरीय ज्ञान और राजयोग के अभ्यास से मन-वचन-कर्म में पवित्रता आती है और पवित्रता ही सुख-शांति की जननी है। जीवन में ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करने से ही मनुष्य चरित्रवान, दैवीगुण सम्पन्न देवता बनता है। दूसरा फायदा, जैसा अन्न वैसा मन। इस बात को ध्यान में रखते हुए ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा। तीसरा फायदा, गीता-ज्ञान की पवित्रता को धारण करके जनसंख्या विस्फोट को रोकने का सर्वोत्तम उपाय। चौथा फायदा, आज समाज में नारियों का शोषण हो रहा है। उसके निदान के लिए ही नारी शक्ति को सशक्त बनाना जिससे कि वो निर्भीक बनें। समाज में फैली हुई आसुरी शक्तियों का संहार ये शिवशक्तियों रूपी माताओं-कन्याओं के द्वारा ही होना है। पाँचवाँ फायदा, श्रीमद्भगवत गीता में भगवान ने कहा है- “सर्वभूतेषु येनैकम् भावमव्ययमीक्षते।” (गीता 18/20) अर्थात् ऐसा ज्ञान जो दैहिक आकृतियों में बँटे हुए सभी प्राणियों में ज्योतिबिंदु आत्मा को देखना सिखाए वो सात्विक होता है। और सतोप्रधान सदा सत्व सुप्रीम सोल हमको यही शिक्षा देते हैं कि तुम अपने को भी आत्मा समझो और दूसरों को भी आत्मा देखो। इसी भावना से ही “वसुधैव कुटुम्बकम्” का जो हमारा नारा रहा है इसको प्रैक्टिकल रूप मिलेगा।

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