श्रीमदभगवद्गीता


‘श्रीमद् भगवद्गीता’ सम्पूर्ण विश्व में मानवजाति के लिए भगवान का बर्बली दिया हुआ भारतीय अमूल्य उपहार है। भगवद्गीता ही एक ऐसा शास्त्र है जिसको ‘सर्वशास्त्र शिरोमणि’ कहा गया है। ऐसी विलक्षण रचना है, जिसको ही ‘भगवानुवाच’ की मान्यता प्राप्त है। जो महर्षि वेदव्यास द्वारा लिखी गई है। गीता (18/75) में बताया है- “व्यासप्रसादात्” अर्थात् व्यास की प्रसन्नता से यह गीता-ज्ञान हमको मिला है। यह शास्त्र अन्य शास्त्रों की तरह सिर्फ धर्म उपदेश का साधन नहीं; अपितु इसमें अध्यात्म के साथ-2 राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक और व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान भी है। अर्जुन जो महाभारत युद्ध के महानायक हैं, युद्ध के मैदान में समस्याओं से भयभीत होकर जीवन और क्षत्रिय धर्म से निराश हो गए। उसी प्रकार हम सभी नं.वार अर्जुन की भाँति जीवन की समस्याओं में उलझे हुए हैं; क्योंकि यह जीवन भी एक युद्धक्षेत्र है। इसलिए आज सामान्य मनुष्य अपने जीवन की समस्याओं से उलझकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है अर्थात् क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए- इस संबंध में ही बुद्धू बन जाता है और जीवन की समस्याओं से लड़ने की बजाए, उनसे भागने लगता है; लेकिन समस्याओं से भागना समस्या का समाधान नहीं है। उन समस्याओं के समाधान के लिए ही भगवान अर्जुन के माध्यम से समस्त सृष्टि की मानवजाति के लिए ही गीता-ज्ञान अभी वर्तमान समय में दे रहे हैं।
भगवद्गीता अन्य शास्त्रों के मुकाबले ज्यादा उपयोगी क्यों है ?
प्रत्येक व्यक्ति के लिए गीता-ज्ञान का अध्ययन अति आवश्यक है। गंगा के पानी से तो सिर्फ शरीर ही साफ हो सकता है; परंतु गीता-ज्ञान से तो मैला मन भी साफ हो जाता है। गीता में बताया है- क्या कर्म करना चाहिए और क्या नहीं, क्या त्यागने योग्य है और क्या ग्रहण करने योग्य है। जिसमें आज बड़े-2 पंडित-विद्वान-आचार्य, वैज्ञानिक भी चक्करा गए हैं। ये ज्ञान सिर्फ सुनने वाला नहीं, अपितु धारण करने वाला है। यदि बच्चों को गीता-ज्ञान दिया जाए तो उनमें अच्छे संस्कार उत्पन्न होंगे। इसका अध्ययन करने से हमें पता चलेगा कि हमारा सम्पूर्ण जीवन कैसा होना चाहिए। जो वेद निकले या जो भी शास्त्र निकले, उपनिषद् निकले, पुराण निकले, वो सब त्रिगुणमयी हैं; इसलिए गीता (2/45) में लिखा है क्या? ‘‘त्रैगुण्यविषया वेदा’’, जो वेद हैं त्रिगुणातीत नहीं हैं, तीन गुणों से भरे-पूरे हैं। ‘‘निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।’’ हे अर्जुन! तेरे को तीन गुणों से परे जाना है, परम्ब्रह्म की स्टेज में पहुँचना है। परम्ब्रह्म माने ब्रह्मलोक की स्टेज, सत्यधाम की स्टेज शरीर से भी और आत्मा से भी।


भगवद्गीता की अनकही सच्चाई - with proof

एकज भूल

5000 वर्ष पूर्व महाभारत के समय मैंने ही अविनाशी ज्ञान सुनाया था जिसका यादगार शास्त्र श्रीमद्भगवद्गीता गाया जाता है; परंतु भारतवासियों की सबसे बड़ी भूल यही है कि सर्वशास्त्रमयी शिरोमणि श्रीमद्भगवद्गीता पर मुझ ज्ञान-सागर, गीता-ज्ञान दाता, दिव्य चक्षु विधाता, पतित-पावन, जन्म-मरण रहित, सदा मुक्त, सभी धर्म वालों के गति-सद्गति दाता परमपिता परमात्मा शिव का नाम बदल 84 जन्म लेने वाले, सर्वगुण सम्पन्न, सोलह कला सम्पूर्ण, सतोप्रधान सतयुग के प्रथम राजकुमार श्री कृष्ण (जिसने स्वयं इस गीता द्वारा यह पद पाया है) का नाम लिख कर भगवद्गीता को ही खंडन कर दिया है। इस कारण ही भारतवासी मेरे से योग भ्रष्ट हो, धर्म भ्रष्ट, कर्म भ्रष्ट, पतित, कंगाल, दुःखी बन गए हैं। यदि भारत के विद्वान, आचार्य, पंडित यह भूल करते तो सृष्टि के सभी धर्म वाले श्रीमद्भगवद्गीता को मुझ, निर्वाण धाम ले जाने वाले पंडे (LIBERATOR  &  GUIDE) परमप्रिय परमपिता शिव के महावाक्य समझ कितने प्रेम और श्रद्धा से अपना धर्म शास्त्र समझ पढ़ते और भारत को मुझ परमपिता की जन्मभूमि (GOD’S BIRTH PLACE) समझ इसको अपना सर्वोत्तम तीर्थ स्थान मानते।

सर्वप्रथम शास्त्र - श्रीमदभगवद्गीता


1.  पहले गीता बनी, फिर वेद बने, फिर वेदों की व्याख्या हुई। ब्राह्मण बने, सत्पथ ब्राह्मण आदि। फिर उनकी भी व्याख्या हुई। आरण्यक बने, फिर उपनिषद् बने, फिर ढेर-के-ढेर रामायण आदि शास्त्र बनने लगे। भागवत, महाभारत तो ज्ञान का विस्तार होता गया।
2. 
गीता की व्याख्या वेदों में की गई। गीता है जो मुख से निकली डायरेक्ट, वो है सबसे सात्विक ग्रंथ, धर्मग्रंथ। गीता से ही वेद निकले हैं। अगर वेद पहले निकल गए होते तो वेदों का ज्ञान गीता में अवश्य होता। वेदों की टिकाएँ होतीं। सभी लोग वेद पढ़ते; परन्तु आज तो वेदों को कोई पढ़ता ही नहीं हैं। जितना ज्ञान गीता में है उतना ज्ञान किसी भी वेद-शास्त्रों में नहीं है। इसी कारण गीता को सर्वोपरी शास्त्र माना गया है; क्योंकि जो सबसे प्राचीन होता है उसी में ही सत्यता होती है।
3. 
पहले माँ-बाप होते है या बच्चे होते हैं? गीता है माई-बाप, तो गीता-ज्ञान ही पहले होता है, बाद में जब गीता को झूठा साबित कर दिया तो गीता को महाभारत में घुसेड़ दिया, एक अंश बना दिया, एक अध्याय बना दिया।

गीता-ज्ञान द्वापुरयुग में नहीं, कलियुगांत में दिया गया है।

1.  गीता में एक भी ऐसा श्लोक नहीं है, जिसमें बताया हो कि गीता-ज्ञान द्वापर में दिया है।

2. 
अगर गीता-ज्ञान द्वापर में दिया होता तो कलियुग क्यों गया? भगवान तो स्वर्ग बनाते हैं, फिर दुनियाँ नर्क क्यों बन गई? गीता में तो बोला है- ‘‘मया अध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं। हेतुना अनेन कौन्तेय जगत् विपरिवर्तते।।’’ (गीता 9/10) जब मैं आता हूँ तो जगत विपरीत गति से जाता है अर्थात् कलियुग से सतयुग की ओर; परन्तु ऐसा तो कुछ हुआ ही नहीं। और इतना बड़ हिंसक युद्ध दिखाया गया है। हिंसा तो हर धर्म में पाप मानी गई है। फिर भगवान हिंसक युद्ध कैसे करा सकते हैं?

3  ‘‘
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।’’ (गीता 18/66) सभी धर्म द्वापर में मौजूद भी नहीं थे, जब सब धर्म मौजूद होंगे तब तो उनको छोड़ने की बात होगी। अभी कलियुग के वर्तमान समय में अनेक धर्म-मठ-पंथ-सम्प्रदाय मौजूद हैं।

4.  ‘‘
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।” (गीता 4/7) अर्थात् जब धर्म की ग्लानि होती है, अधर्म या विधर्म बढ़ता है, तब मैं आता हूँ। धर्म की ग्लानि अर्थात् एकव्यापी भगवान को सर्वव्यापी बता देते हैं। जैन और वैदिक प्रक्रिया के अनुसार कलियुग के अंत में ही धर्म की ग्लानि होती है; क्योंकि कलियुग-अंत तक अनेक धर्म स्थापित हो जाते हैं और सब धर्म चौथे युग की चौथी अवस्था में तमोप्रधान बन जाते हैं; क्योंकि सृष्टि रूपी मकान या वृक्ष की हर चीज चतुर्युगी की तरह सत्त्व प्रधान, सत्त्व सामान्य, रजो और तामसी- इन 4 अवस्थाओं से अवश्य गुज़रती है।

5.  16
कला सम्पूर्ण स्टेज वाला कृष्ण भला 8 कला की द्वापरयुग में कैसे सकते हैं? यदि युग ही 8 कला है तो फिर मनुष्य 16 कला सम्पूर्ण कैसे हो सकते हैं?

6. 
दो सेनाएँ जहाँ लड़ने को तैयार हों वहाँ कोई बैठकर गीता-ज्ञान दे, संभव ही नहीं है; बल्कि नामुमकिन है।

कब होता है भगवान का अवतरण ?

1.  जब-2 धर्म की ग्लानि होती है तब-2 भगवान इस सृष्टि पर आते हैं; धर्म की ग्लानि अर्थात् एकव्यापी भगवान को सर्वव्यापी बता देते हैं। जैन और वैदिक प्रक्रिया के अनुसार कलियुग के अंत में ही धर्म की ग्लानि होती है; क्योंकि कलियुग-अंत तक अनेक धर्म स्थापित हो जाते हैं और सब धर्म चौथे युग की चौथी अवस्था में तमोप्रधान बन जाते हैं।

2.  “
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप॥” (गीता 7/27) अर्थात् सब प्राणी कल्पान्त काल/चतुर्युगांत में सम्पूर्ण मूढ़ता को पहुँच जाते हैं।

3.  ‘‘
अवजानन्ति मां मूढ़ा मानुषीं तनुं आश्रितं।’’ (गीता 9/11) साधारण तन में आए हुए उस परमपिता को पहचानकर मूर्ख लोग उनकी अवज्ञा करते हैं। एकव्यापी भगवान को सर्वव्यापी बताकर सबसे बड़ा अधर्म करते हैं। इन सब अधर्मियों और इनके द्वारा फैलाए अधर्म का नाश करने के लिए ही भगवान गुप्त साधारण भेष में इस कलियुगांत की सृष्टि पर आए हैं।
भगवद्गीता पर रिसर्च
गीता पर कुछ इतिहासकारों ने रिसर्च करके उसकी सत्यता सामने लाने का प्रयास भी किया है। 

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गीता का भगवान कौन ?
ज्ञान दाता का स्वरूप क्या ?
यह सच्ची रीति से कोई नहीं जानता।


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ब्रह्माकुमार-कुमारियों के लिए

ब्रह्माकुमारियों ने दादा लेखराज ब्रह्मा को साकार गीता ज्ञान दाता बता दिया जो कि मुरलियों में आये महावाक्यों से साबित नहीं होते हैं। मुरलियों में स्पष्ट है कि गीता ज्ञान दाता दादा लेखराज ब्रह्मा उर्फ़ कृष्ण नहीं हैं।...More information

जीवन परिवर्तक ज्ञान, फिर भी संसार में अन्धकार क्यों ?

कालांतर में विद्वान-आचार्यों ने अमृत तुल्य गीता की विशद टिकाएँ करके भगवान के महावाक्यों में काफी हेर-फेर कर दी है, जिसका प्रमाण गीता की अनेक टिकाएँ ही हैं। जैसे माधवाचार्य की गीता कहती है- ‘‘मनुष्य-आत्माएँ अलग हैं और भगवान अलग है।’’ शंकराचार्य की गीता कहती है- ‘‘सर्वम् खलु इदम् ब्रह्म।’’ इस संसार में जो कुछ भी है, वह सब ब्रह्म ही है। भगवान के महावाक्यों में कितना अलगाववाद कर दिया। उन सभी गीता में असली ज्ञान तो है ही नहीं। वो तो विषैला ज्ञान है जिसको पी कर आज सभी मनुष्य दुर्गति में जा रहे हैं। एकव्यापी भगवान को सर्वव्यापी बताकर भगवान के पास पहुँचने का मार्ग ही बंद कर दिया है। मनुष्यों की टीका ईश्वर के सच्चे स्वरूप का परिचय नहीं दे सकतीं; क्योंकि ईश्वर का परिचय ईश्वर ही दे सकते हैं।
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साक्षात् प्रैक्टिकल में आये भगवान के मुखारबिंदु से
निकला गीता-ज्ञान जिसे "एडवांस भगवद्गीता" के नाम से जाना जाता है

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एडवांस भगवद्गीता (अध्याय-क्रमानुसार)


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