Frequently Asked Questions

संस्था

Ocean Of Knowledge शिवबाबा स्वयं साधारण मनुष्य तन में आ करके ‘गीता-ज्ञान’ और सहज राजयोग की शिक्षा द्वारा हर धर्म के मानवीय जीवन के लक्ष्य को यानी नर को देवता और नारी को देवी पद प्राप्त करवा रहे हैं। समस्त विश्व की आत्माओं के लिए सर्वोत्तम उच्च शिक्षा प्राप्त कराने के कारण हम इसे ‘विश्वविद्यालय’ कहते हैं। और वैसे शिवबाबा भी कहते हैं कि ये घर का घर भी है और यूनिवर्सिटी भी है। इसको ही ‘गॉड फादरली वर्ल्ड यूनिवर्सिटी’ कहा जाता है; क्योंकि विश्व की सारी आत्माओं की ईश्वरीय पढ़ाई और गति-सद्गति होती है। रियल वर्ल्ड यूनिवर्सिटी ये है। घर का घर भी है। मात-पिता के सन्मुख बैठे हैं। ...स्प्रिचुअल नॉलेज सिवाय स्प्रिचुअल फादर के और कोई भी मनुष्य दे ही नहीं सकता। (मु.ता. 18.8.76, पृ.1 आदि)
स्वयं शिवबाबा माता-पिता बन करके स्नेह की छत्रछाया में हम सभी बच्चों को पालना दे रहे हैं; यही कारण है कि हम इस ‘विश्वविद्यालय’ को ‘ईश्वरीय परिवार’ भी कहते हैं। अभी देखने में भले ही इस ईश्वरीय परिवार का रूप छोटा है; लेकिन वास्तव में रूहानी बाप का यह बेहद का परिवार है। इस परिवार के सभी सदस्यों का यह मानना है कि सारा ही विश्व हमारा परिवार है अर्थात् ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ है।महामहिम राष्ट्रपति से ले करके समस्त सरकारी प्रतिनिधि कार्यभार ग्रहण करने से पहले एक ईश्वर को ही मालिक मान करके शपथ ग्रहण करते और कराते हैं।और आपको ये भी पता होगा कि माननीय कोर्ट में भी प्राय: गीता पर ही हाथ रखवाकर, एक ईश्वर को हाज़िर-नाज़िर मान करके, शपथ ग्रहण करवाते आए हैं।तो वही ईश्वर इस समय हाज़िर और नाज़िर हैं और इस परिवार के मालिक भी हैं। हाज़िर यानी उपस्थित और नाज़िर माना नज़र के सामने हैं। तो क्या वो ईश्वर इस परिवार के सदस्य नहीं हैं? ‘विश्व-धर्म’ की स्थापना करने के लिए प्राचीनतम और पवित्रतम ‘भारत’ देश में ही भगवान आते हैं। हम भोले शिवबाबा ‘विश्वनाथ’ को ‘सर्वोत्तम सरकार’, ‘सुप्रीम गवर्मेण्ट’ और ‘ऑलमाइटी अथॉरिटी’ पहले ही मान चुके हैं। तो फिर अलग से इस ईश्वरीय परिवार का सरकार से रजिस्ट्रेशन करवाने की क्या ज़रूरत है? इस परिवार के सभी सदस्य देश, समाज और सरकार के सभी नियम-कानूनों का पालन करना और ईश्वरीय मर्यादाओं के लिए अपना जीवन समर्पण करना, अपना फर्ज़ समझते हैं। हम भारत की तन-मन-धन से सेवा करते हैं। भारत सरकार के द्वारा जो सार्वजनिक धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार हमें मिला है, हम उसी में प्रसन्न हैं। इससे अधिक सरकारी सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए ईश्वर की श्रेष्ठ मत के विपरीत चल करके ब्रह्माकुमारी संस्था की तरह हम अपने आप को रजिस्टर क्यों करवाएँ? बाकी सरकार जब चाहे तब हमारी गतिविधियों की मोनिटरिंग कर सकती है या करवा सकती है। इसके लिए उनका सदा स्वागत है; और वैसे भी टाइम-टू-टाइम सरकार हमारी मोनिटरिंग करती भी है।
जैसे आपका परिवार चलता है, परिवार के सदस्यों के द्वारा उपार्जित धन के सहारे , वैसे ही हमारा भी ईश्वरीय परिवार भी सिर्फ परिवार के सदस्यों के द्वारा उपार्जित धन के सहारे ही चलता है। गरीब निवाज़ भगवान बाप के बच्चे भी गरीब हैं। उनके पास जो कुछ भी बचा-खुचा है, चाहे तन की ताकत हो, मन की ताकत हो, धन की ताकत हो, सभी की बाजी लगा करके भारत को स्वर्ग बनाने के कार्य में लगे हुए हैं। शिवबाबा का कहना है- कम खर्च बाला नशीन और सादा जीवन उच्च विचार की धारणा को अपनाना है, जिससे किसी के भी आगे हाथ फैलाने या भीख माँगने की ज़रूरत न पड़े। मुरली (मु.ता.4.10.73 पृ.4 अंत) में कहा है- ‘‘माँगने से मरना भला।’’आ॰वि॰ में किसी भी प्रकार का दान किसी भी रूप में माँगा नहीं जाता है। ये जब ईश्वरीय परिवार है, तो परिवार चलाना बाप का काम है। इसमें माँगने की क्या दरकार? ईश्वरीय मत पर चलने से स्वतः ही सब बातों की पूर्ति होती रहती है। गीता (9/22) में भी कहा है- योगक्षेमं वहाम्यहम् अर्थात् स्वयं ईश्वर ने कहा है कि अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति और प्राप्त हुई की रक्षा के भार को मैं सम्भालता हूँ। चंदा या भीख माँग करके भक्ति करना तो अज्ञानी भक्तों का काम है। आ॰वि॰ में जनरल पब्लिक से तो क्या, अपने ही परिवार के नॉन सरेण्डर्ड भाई-बहनों से भी चंदा आदि ‘माँगने से मरना भला’ ऐसे समझा जाता है।
हम देवताओं को नहीं मानते, ऐसी बात नहीं है। हम देवताओं को जानते भी हैं, मानते भी हैं और सबसे खुशी की बात तो ये है कि देवताओं को देवता बनाने वाले देवाधिदेव महादेव के द्वारा स्वयं भगवान शिव हमें देवता बनने की प्रैक्टिकल पढ़ाई पढ़ा रहे हैं। शिवबाबा के द्वारा उन सभी देवताओं की बायोग्राफी हमें मिली है; और साथ-ही-साथ भक्ति के सभी कर्मकांडों से छुटकरा भी मिला है। शिवबाबा हमें चैतन्य रूप में मिले हैं, तो हम जड़ मूर्तियों की पूजा-पाठ क्यों करें? शिवबाबा ने मुरली (9.2.71 पृ.2 आदि) में कहा भी है- ‘‘अज्ञान अंधकार की जब रात शुरू होती है, तो पहले-2 मंदिर बनते हैं, वह भी पहले एक शिवबाबा का, फिर लक्ष्मी-नारायण, राम-सीता के मंदिर बनते हैं, कलियुग आते-2 ढेर-के-ढेर हनुमान, गणेश आदि के मंदिर बनते हैं।’’ मुरली में ये भी कहा है कि 63 जन्म तुमने बहुत भक्ति की। भक्ति आती है अनेक गुरुओं से; ज्ञान आता है एक बाप से। सत्य ज्ञान मिलने से भक्ति आपे ही छूट जाती है। अभी अपने आप को आत्मा समझकर मामेकम् याद यानी साधारण तन में आए हुए एक बाप को याद करने से पतित से पावन बन जाएँगे। इसके बावजूद भी अगर कोई भक्ति करना चाहे तो हम उनकी भक्ति में बाधा नहीं डालते और ना ही उन्हें भक्ति करने से मना करते।
अव्यक्त वाणी (ता.14.7.74 पृ.109, 110) में महावाक्य आया है- भक्त जो होंगे वो कभी भी अपने आप को अधिकारी अनुभव नहीं करेंगे। उनमें अन्त तक भक्तपने के संस्कार व माँगने के संस्कार रहेंगे। आशीर्वाद दो, शक्ति दो, कृपा करो, बल दो, दृष्टि दो, आदि। ऐसे माँगने के संस्कार व आधीन रहने के संस्कार लास्ट तक उनमें देखने में आएँगे। वे सदैव जिज्ञासु रूप में ही रहेंगे। उन्हें बच्चेपन का नशा, मालिकपन का नशा और मास्टर सर्वशक्तिवान का नशा धारण कराते भी वे धारण नहीं कर सकेंगे। वे थोड़े में ही राज़ी रहने वाले होंगे। ..........भक्त कभी भी डायरैक्ट बाप के कनेक्शन में आने की शक्ति नहीं रखते हैं, वे सदा अन्य आत्माओं के सम्बन्ध में ही सन्तुष्ट रहते हैं।
प्राचीन परम्पराएँ वे नहीं हैं जो द्वापर युग से चलती आ रही हैं, वे तो मध्यकालीन परम्पराएँ हैं। हम तो द्वापर युग के भी पहले के दो युगों यानी सतयुग और त्रेतायुग के भी पहले का युग, जो अति प्राचीन युग है, उस सृष्टि के आदिकाल के संगमयुग की परम्पराओं को मानते हैं और फॉलो भी करते हैं। कलियुग के अंत और सतयुग के आदिकाल को ही ‘संगमयुग’ कहा जाता है। अव्यक्त वाणी (अ.वा.9.5.77 पृ.1 मध्यादि) में महावाक्य आया है- ‘‘आत्मा में मुख्य संस्कार भरने का समय अभी चल रहा है। तुम आत्मा में हर जन्म का रिकॉर्ड इस समय भर रहे हो।’’
स्वयं जो धर्मपिताओं के पिता हैं, बापों के बाप हैं, जिन्हें ‘गॉडफादर’, ‘अल्लाह’ इत्यादि नामों से जाना जाता है, जिनका यथार्थ रूप ‘शिव-शंकर भोलेनाथ’ है। उनके अलावा और कोई भी इस सम्पूर्ण सृष्टि के आदि-मध्य और अंत को नहीं समझा सकते हैं।
शिवबाबा ने कहा है कि सतयुग-त्रेतायुग में भारतवासी श्रेष्ठाचारी देवताएँ थे। वे अपने पूज्य-स्वरूप को, अपने धर्म को और अपने धर्मपिता को भूलने के कारण कलियुग अन्त में आ करके धर्मभ्रष्ट-कर्मभ्रष्ट, पतित बन जाते हैं। पूज्य से पुजारी, पावन से पतित बन जाते हैं। फिर शिवबाबा की श्रीमत पर चल करके हम फिर से शूद्र से ब्राह्मण और ब्राह्मण से पावन देवता बनते हैं।
• मुरली (ता.23.11.76 पृ.2 अंत) में कहा है- सेकेण्ड में जीवन्मुक्ति का गायन है ना! इसी जन्म में ही हम बाबा से जीवन्मुक्ति का वर्सा ले करके ब्राह्मण सो देवता बन रहे हैं।
इसका कारण ये है कि भक्ति में होता है मनाना और ज्ञान में होता है बनना। भक्ति में तो थोड़े समय के लिए उत्सव-पर्व आदि मनाते हैं; ज्ञान में तो सदा उमंग-उत्साह में रहकर भगवान के साथ मंगल-मिलन मना करके जीवन बनाया जाता है। ब्राह्मण जीवन के संस्कार और रस्म-रिवाजें ही भक्तिमार्ग में यादगार के रूप में मनाई जाती हैं। उदहारण के तौर पर शिवबाबा कलियुग के घोर अज्ञान अंधेरी रात में आ करके हम आत्माओं को ज्ञान की रोशनी से जगाते हैं। तो जैसे कि हमको एक नया जन्म मिल जाता है। हम शिवबाबा को बाप के रूप में पहचानते हैं, तो इसी की यादगार में भक्तिमार्ग में ‘महाशिवरात्रि’ के दिन बाप का जन्मदिन मानते हैं और साथ-ही-साथ जागरण भी करते हैं। दूसरा उदहारण- शिवबाबा आकर बिंदु-2 आत्मा रूपी चैतन्य दीपकों को ज्ञान की रोशनी से भर देते हैं, तो भक्तिमार्ग में जड़ दियें जला करके ‘दीपावली’ का उत्सव मनाते हैं। और एक उदहारण आपको देते हैं। शिवबाबा की निरंतर याद की अग्नि से हम अपनी आत्मा के अन्दर भरा हुआ द्वैतवादी 63 जन्मों का विकारी कचड़ा भस्म करते हैं और साथ-ही-साथ एवरप्योर शिवबाबा के संग के रंग में आ करके हम आत्माएँ अपने आप को पतित से पावन अर्थात् ‘होली’ बनाती हैं। तो भक्तिमार्ग में होली का उत्सव मनाते हैं, स्थूल रंग एक-दूसरों को लगाकर और ही भूत बन जाते हैं; और लकड़ियाँ आदि जला करके ‘होली’ का उत्सव मनाते हैं।
यहाँ पर कोई देहधारी धर्मगुरु या शास्त्रार्थ करने वाला पंडित मुखिया बन करके नहीं बैठा हुआ है। लेकिन स्वयं आत्माओं के पिता निराकार शिव ज्योति, मनुष्य-सृष्टि के पिता प्रजापिता ब्रह्मा के द्वारा इस विद्यालय को अपने नियन्त्रण में चला रहे हैं। हम उन्हीं को अपना सब-कुछ यानी ‘ऑलमाइटी अथॉरिटी’ मानते हैं।
मैनेजमेण्ट कमिटी रजिस्टर्ड संस्थाओं की होती है, परिवार की नहीं होती। इस ईश्वरीय परिवार में ब्रह्मा हमारी माता है और शिवबाबा हमारे पिता हैं। परिवार चाहे छोटा हो या बड़ा हो, माता-पिता को परिवार चलाने के लिए किसी मैनेजमेण्ट कमिटी की ज़रूरत नहीं होती।
इस ईश्वरीय परिवार को हम सभी भाई-बहनें मिलकर चलाते हैं। इसमें दान या फंडिंग की तो बात ही नहीं है। शिवबाबा ने कहा है- ‘‘माँगने से मरना भला’’। हम सभी भाई-बहनें अपने ही तन-मन-धन से राजधानी स्थापन कर रहे हैं। राजधानी में हम जाएँगे तो खर्चा भी हम ही करेंगे ना! सादा जीवन उच्च विचार की धारणा से ये परिवार बिना किसी अभाव के सुचारु रूप से चल रहा है।
शिक्षा ही परिवर्तन का आधार है। जिस प्रकार एक कुम्हार घड़े को आकार देता है, उसी प्रकार एक शिक्षक जीवन को आकार देता है। और शिवबाबा परमशिक्षक बनकर आए हैं; और ऐसी यूनिवर्सिटी की स्थापना करते हैं जहाँ पर विश्व की सभी आत्माएँ बिना किसी जात-पात या अमीरी-गरीबी के भेदभाव के समान रूप से शिक्षा ले सकते हैं। यहाँ पर अन्य स्कूल-कॉलेज की तरह कोई उम्र का बंधन नहीं है, छोटे-बड़े सभी एक साथ पढ़ाई पढ़ते हैं और एक ही पढ़ाई पढ़ते हैं। उन यूनिवर्सिटीज़ में तो पढ़ने वाले डिग्री करते हैं, एम/बीए करते हैं; लेकिन नौकरी मिले इसकी कोई गारण्टी नहीं; लेकिन यहाँ पढ़ने वाले हर पुरुषार्थी को अपने पुरुषार्थ के अनुसार प्राप्ति ज़रूर होती है। वहाँ पर तो लक्ष्य ही विनाशी है; लेकिन यहाँ लक्ष्य ही अविनाशी है; इसलिए मनुष्यों के द्वारा खोली गई यूनिवर्सिटी के साथ ईश्वर के द्वारा खोली गई यूनिवर्सिटी की तुलना करना ही गलत है। बाकी रही यू.जी.सी. एक्ट की बात, तो यू.जी.सी. से हम कोई कमीशन तो लेते नहीं हैं, तो फिर उनसे अनुमति लेना या उनके नियमों पर चलना, हम कोई ज़रूरी नहीं समझते। यू.जी.सी. एक्ट इस यूनिवर्सिटी को फेक यूनिवर्सिटी घोषित करे या न करे, इससे हमें कोई अंतर नहीं पड़ता! जिनको मनुष्य से देवता बनना है वो यहाँ पर आ रहे हैं और आते ही रहेंगे और अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करके ही रहेंगे।
भगवान को गरीब निवाज़ कहा जाता है, इसलिए गरीबों को ही उठाते हैं। जिनके पास बैंक-बैलेन्स है, पद-मान-मर्तबा है, उनके लिए ईश्वरीय ज्ञान की कोई वैल्यू नहीं। साधारण मनुष्य तन में आए हुए भगवान के द्वारा जो ज्ञान दिया जा रहा है, उसको सुनने के लिए उनके पास समय ही कहाँ है?
यहाँ पर रहने वालों में माताओं-बहनों की संख्या ज़्यादा है। पुराने ज़माने में रानियों को भी रनिवास में रखा जाता था, सामान्य स्त्रियों की भी घर में सुरक्षा होती थी। इस सुरक्षा की दृष्टि से ही यहाँ पर ऐसा प्रबंध किया गया है और इस प्रकार के प्रबंध से यहाँ पर रहने वालों को कोई आपत्ति नहीं है।
शिवबाबा ने कहा है- “सबसे फर्स्टक्लास भोजन है- दाल, चावल और आलू।” गीता में भगवान ने भी कहा है- ‘‘आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।’’ (गीता 17/8) अर्थात् जो भोजन, आयु, बुद्धि और बल को बढ़ाए, आँतों के लिए हितकारी हो वो सात्विक होता है। खिचड़ी तो सिर्फ शाम को ही खिलाई जाती है। जिस तरह आपने देखे होंगे गुरुद्वारों में भी सादा दाल और रोटी को कितनी श्रद्धा से खाते हैं। बी.के. में तो श्रीनाथ भण्डारा है, पैसे वालों को 56 भोग मिलते हैं, गरीबों को नहीं। जिस देश की आधी से ज़्यादा प्रजा भूख से तड़प रही हो, उस देश में क्या भगवान और भगवान के बच्चों को 56 भोग खाना शोभा देगा? यहाँ पर तो शिवबाबा का जगन्नाथ भण्डारा है। शिवबाबा सारे जगत के नाथ हैं। जगन्नाथपुरी में दाल-चावल या खिचड़ी प्रसाद के रूप में दी जाती है; क्योंकि शिवबाबा को सारी दुनिया की समान रूप से पालना करनी है।
ईश्वरीय नियम सरकार के नियमों का उल्लंघन नहीं करता। सरकार अगर कहे कि भारतीय नागरिकों को सुरक्षा लेने की ज़रूरत नहीं, तो हम भी वैसा ही करेंगे। आज समाज कोई मंदिर तो नहीं बन गया है। समाज में हर तरह के लोग हैं; और समाज की सुरक्षा की जिनकी ज़िम्मेवारी है हम उनसे ही तो अपील करते हैं, औरों से तो नहीं करते।
शिवबाबा का ही डायरैक्शन है सरकार के नियमों के अनुसार चलना। कोई अत्याचार करता है तो पुलिस में रिपोर्ट करो। लॉ अपने हाथ में उठाकर लॉ ब्रेकर नहीं बनना है, कानून के अनुसार चलना है।

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