आध्यात्मिक कोर्स

विश्व नव निर्माण की अनूठी ईश्वरीय योजना


त्रिमूर्ति

‘शिव’ का अर्थ है- ‘कल्याणकारी’। परमपिता+परमात्मा का यह नाम इसलिए है कि सृष्टि-चक्र के अंत में जब मनुष्यात्माएँ तथा प्रकृति, पतित एवं तमोप्रधान बन जाती हैं तो परमधाम निवासी परमपिता+परमात्मा शिव ज्योतिर्बिन्दु मनुष्य शरीर का आधार लेकर मनुष्यात्माओं और प्रकृति, दोनों को पावन एवं सतोप्रधान बनाते हैं। उनके इस कर्तव्य की यादगार में ही शिवरात्रि अर्थात् परमपिता के शब्दों में शिवजयंती का त्यौहार मनाया जाता है। सुप्रीम सोल शिव किसी पुरुष के बीज से या माता के गर्भ से जन्म नहीं लेते। वे प्रजापिता द्वारा मनुष्य-सृष्टि-रूपी वृक्ष के चैतन्य बीज हैं और जन्म-मरण तथा कर्मबंधन रहित हैं। अतः वे अपना कर्तव्य करने के लिए किसी साधारण वृद्ध मनुष्य के तन में दिव्य प्रवेश करते हैं। इसे ही ‘परमपिता+परमात्मा का दिव्य अवतरण’ कहा जाता है; क्योंकि उनका अपना शरीर नहीं होता है। उनका दिव्य कर्तव्य तीन चरणों में सम्पन्न होता है- स्थापना, विनाश और पालना। इन तीन कर्तव्यों के लिए वे अव्यक्त स्थिति धारण करने वाली तीन साकार देवात्माओं का आधार लेते हैं। वे देवात्माएँ हैं- ब्रह्मा, शंकर तथा विष्णु। मनुष्य-सृष्टि-रूपी रंगमंच पर उनके दिव्य अवतरण के बाद कौन-सी तीन आत्माएँ ब्रह्मा, शंकर एवं विष्णु के पात्रों का अभिनय करती हैं, यह जानने के लिए हमें सन् 1936-37 में परमपिता+परमात्मा के अवतरण से लेकर अब तक की घटनाओं को जानना ज़रूरी है।

सृष्टि-चक्र

पुरातन काल से मनुष्य ने अपने जन्म से पूर्व और मृत्यु के पश्चात् की कहानी को जानने का भरसक प्रयास किया है और कई तरह से इसे वर्णित किया है। वास्तव में परमपिता+परमात्मा के अनुसार यह मनुष्य सृष्टि-चक्र आत्माओं और प्रकृति का एक अद्भुत नाटक है, जिसकी हर 5000 वर्ष के बाद पुनरावृत्ति होती है। 5000 वर्ष के इस सृष्टि-चक्र में प्रत्येक आत्मा इस सृष्टि-रूपी रंगमंच पर आकर ये शरीर रूपी वस्त्र धारण कर भिन्न-2 भूमिका अदा करती है। इस सृष्टि-रूपी नाटक को कालक्रमानुसार चार युगों में बाँटा गया है- सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा कलियुग। प्रत्येक युग की आयु 1250 वर्ष की होती है। सतयुग और त्रेतायुग को मिलाकर ‘स्वर्ग’ कहा जाता है तथा द्वापरयुग और कलियुग को मिलाकर ‘नर्क’ कहा जाता है। स्वर्ग और नर्क इसी सृष्टि पर होते हैं, न कि आकाश या पाताल में। अद्वैतवादी देवताओं के सतयुग और त्रेतायुग में इस सृष्टि पर एक धर्म, एक राज्य, एक भाषा आदि होने तथा देह-अभिमान न होने के कारण सदा सुख, शांति और पवित्रता होती है। सतयुग व त्रेतायुग में आदि सनातन देवी-देवता धर्म था, जिसमें हर आत्मा दिव्यगुण सम्पन्न होने के कारण देवी-देवता कहलाती थी।

लक्ष्मी-नारायण

आज के समस्याओं भरे युग में मनुष्य को अपने जीवन के लक्ष्य का पता नहीं है। वैज्ञानिक आविष्कारों के चलते मनुष्य ने कल्पनातीत प्रगति की है; लेकिन फिर भी वह सन्तुष्ट नहीं है। आधुनिक शिक्षा मानव को डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, वैज्ञानिक, नेता या व्यापारी तो बना देती है; किन्तु उसे सच्ची एवं स्थायी सुख-शान्ति की प्राप्ति नहीं करा सकती। अल्पकालिक सुख-शान्ति पाने की जल्दबाज़ी में मनुष्य या तो विषय विकारों में फँस जाता है या फिर भौतिक सुखों से विरक्त होकर संन्यासी बन जाता है; किन्तु सच्ची सुख-शान्ति, न तो विषय विकारों से और न ही संन्यास से प्राप्त होती है। वह तो केवल गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए, ईश्वरीय ज्ञान एवं राजयोग द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। इसी सच्ची सुख-शांति एवं पवित्रता से परिपूर्ण जीवन का प्रतिनिधित्व करने वाले श्री लक्ष्मी और श्री नारायण एवं उनकी दिव्य रचना को ही इस चित्र में चित्रित किया गया है। दादा लेखराज ब्रह्मा द्वारा दिव्य साक्षात्कारों के आधार पर बनवाए गए चार मुख्य चित्रों में यह लक्ष्मी-नारायण का चित्र भी शामिल है। इस चित्र में वर्तमान मनुष्य-जीवन के लक्ष्य अर्थात् ‘नर से नारायण और नारी से लक्ष्मी’ को चित्रित किया गया है।

झाड़

सृष्टि-रूपी कल्पवृक्ष एक अनोखा वृक्ष है; क्योंकि अन्य वृक्ष की भाँति इस वृक्ष का बीज नीचे नहीं; बल्कि ऊपर की ओर है। प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा मनुष्य-सृष्टि-रूपी वृक्ष के अविनाशी और चैतन्य बीज और कोई नहीं, स्वयं परमपिता+परमात्मा शिव ही हैं, जो परमधामी स्टेज में रहते हैं और उनकी रचना नीचे की ओर है। निराकारी आत्माओं का बाप परमपिता शिव, साकारी मनुष्यों का बाप प्रजापिता ब्रह्मा के मुख कमल द्वारा कहते हैं कि ‘मैं इस सृष्टि-रूपी कल्पवृक्ष का अविनाशी बीजरूप हूँ और जैसे सामान्य बीज में वृक्ष का सार समाया होता है उसी प्रकार मुझमें इस सृष्टि-रूपी वृक्ष के आदि, मध्य और अंत का ज्ञान है। जब यह वृक्ष जड़जड़ीभूत हो जाता है तो मैं ही आकर सत्य ज्ञान एवं राजयोग द्वारा फिर नए सिरे से इसका बीजारोपण करता हूँ या सैपलिंग लगाता हूँ।’

सीढ़ी

ज्ञानियों, महात्माओं और दार्शनिकों ने पुरातन समय से ही मनुष्य के जन्म से पूर्व और मृत्यु के बाद के रहस्यों को जानने का बहुत प्रयास किया है। चूँकि इस्लाम और क्रिश्चियन धर्मों में आत्मा के पूर्व जन्मों को मान्यता नहीं दी गई है; इसलिए उन धर्मखण्डों के साहित्य या धार्मिक पुस्तकों में इस विषय पर कोई चर्चा नहीं की गई है; किंतु भारत में पूर्वजन्म की मान्यता सदियों से रही है; इसलिए इससे सम्बंधित ग्रंथों या पुस्तकों की कोई कमी नहीं है; किंतु केवल एक भूल के कारण भारतवासी अपने स्वर्णिम इतिहास और विश्व की अनेक सभ्यताओं और धर्मों के उद्भव एवं विकास में अपने योगदान को भूल गए हैं। वह भूल है देह-अभिमान के कारण यह समझना कि आत्मा 84 लाख योनियों में जन्म लेती है। फिर भी भगवान के अवतरण एवं मनुष्यों के पूर्वजन्मों को मान्यता देने के कारण ही भारत आज शिव भगवान की कर्मभूमि बना है।

ओमशांति

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